Tuesday, April 8, 2014

प्रेत हीं प्रेत - कुमार सच्चिदानंद सिंह

दमित वासनाओं
कुचली हुई कामनाओं
जली हुई इच्छाओं
का प्रतिरुप में
धुमता हुँ सृष्टि में
निरन्तर
उन्मुक्त, स्वच्छंद।
मैं अदृश्य, अनार्स्पर्श
हवा से भी सूक्ष्म 
तड़ित का सा वेग
न भौतिक आस्तित्व
न पदचाप
और न प्रताड़ना की कामना
फिर भी
डरते हैं मुझसे लोग
आखिर क्यों ?
जब तक बजूद था मेरा
उस संसार में
अग्रज या अनुज की
भूमिका मेरी भी रही
लेकिन मरने के बाद
मुझे गैर समझ
जातिच्यूत कर दिया गया
मेरे नाम पर
दरवाजे और खिड़कियाँ 
बन्द होने लगें 
अँधेरा, सन्नाटा 
एकान्तिकता
को मेरा साम्राज्य माना गया ।
मैं भटकता रहा हूँ 
अपनी तथाकथित
भयानक आँखों से 
संसार को देखता हूँ तो
यह राज समझ में आया
कि यह जो इन्सान है,
जीवित होने का जिसे अभिमान है,
वे मुझसे दूर कहाँ -
बासनाओं
कामनाओं
कुण्ठाओं
का प्रतिरुप यह
भागता है, दौड्ता है
उड्ता भी है
डोर कटी पंतग की तरह
निरन्तर
यद्यपि अन्धाकार पर
विजय प्राप्त करली है उसने
लेकिन मन का अँधेरा
बना लिया है बेशुमार
प्रकृति से परम्परा तक
प्रेम से प्रणय तक
अपनो से गैरों तक
सभी उसके लक्ष्य हैं,
माध्यम हैं
या हथियार । 
मैं खुश हूँ कि 
धरती पर 
असंख्य है अनुचर
या मेरा सजातीय,
मुझसे भी आगे हैं
उनके कदम दो चार 
उनके कदम दो चार
शुक्रिया ऐ संसार । 



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